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500 साल से भी पुरानी है गुरू कैलापीर बलिराज बग्वाल महोत्सव की परंपरा

पढ़ें पूरी कहानी रावत भीम सिंह उत्तराखंडी की कलम से

uk khabar by uk khabar
13th December 2020
in कला/संस्कृति, टिहरी गढ़वाल, त्यौहार, धर्म
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500 साल से भी पुरानी है गुरू कैलापीर बलिराज बग्वाल महोत्सव की परंपरा
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बूढाकेदार. थाती कठूड के बूढाकेदार गांव में गुरू कैलापीर (Guru Kailapir)  बलिराज बग्वाल महोत्सव लगभग 500 साल से भी पुरानी परम्परा है, अनुमानित 13वीं शताब्दी से टिहरी रिसासत के राजशाही समय से तीन पट्टियों में मनायी जाती आ रही है.
गुरू कैलापीर बलिराज-बग्वाल महोत्सव सामान्यत: कार्तिक माह की दीपावली के ठीक एक माह बाद मार्गशीर्ष (मंगसीर) में मनायी जाने वाली स्थानीय दिवाली व मेला (बग्वाल-बदराज) है जो कि क्षेत्र के देवता श्री गुरू कैलापीर के गांव आगमन व महिमा के हर्षोलास में मनायी जाती है.

बूढाकेदार में मंगसीर की बग्वाली का इतिहास

गुरू कैलापीर देवता मूल रूप से कुमाऊं (चम्पावत) सात लाख सलाण-दस लाख दुमाग के आराध्य देवता थे. जहां सभी योद्धा (भड़) के आराध्य देव काल-भैरव, कैलावीर, कैलाशवीर, कैलवीर अर्थात गुरू कैलापीर के मन्दिर बनवाकर पूजे जाते थे, लेकिन मुगल शासन काल में सत्ता की होड़ में कैलापीर की पूजा अर्चना में व्यवधान आने के कारण क्षेत्रीय हकूकदार व प्रजा के विधि-विधानों में मुस्लिम शासकों द्वारा व्यवधानों के चलते देवता के नाल्या-कटाल्यों ने देवता कैलापीर को क्षेत्र से गमन हेतु प्रार्थना की. अन्तत: कैलापीर ने अपने 54 चेले व 52 बेडे (परिवार) को चलने का आदेश दिया और अपने सभी नाल्या-कटाल्यों ( निज्वाला, पुजारी, औजी, बेडा, वीर आदि) के साथ गुरू कैलापीर का नेजा (निसाण) कुमाऊं के चम्पावत से चल पड़ा.

गांव वालों के आतिथ्य सत्कार से यहीं बस गए कैलापीर

कुमाऊं से चलकर देवता विक्रमी संवत् 1317 ( मार्गशार्ष माह की कृष्णी चतुर्दशी एवं अमावस्या) को गढ़वाल मण्डल में टिहरी के बूढाकेदार क्षेत्र के जन्द्रवाडा जगह पर पहुंचा जहां से बूढाकेदार गांव साफ दिख रहा था, देवता व देवता के साथ आये अनुयायियों की भीड़ को देखकर गांव वालों में रात के समय मुछाल-लम्पू-छिलकों की रोशनी से देवता का स्वागत किया (जिस कारण पहले बग्वाल मनायी जाती है) और सुबह जिस प्रकार मेहमान के आवगमन पर साफ-सफाई, रंगाई-पोतायी की जाती है, वैसे पूरा गांव को सजाया (जो कि मेले बलिराज का रूप बना), यह देख कर कैलापीर व चौवनी चेडे व बावनी बेडे प्रसन्न हो गये, इस सम्मान के कारण कैलापीर ने यहां बसने का विचार किया और प्रतिपदा के दिन बूढाकेदार मन्दिर में अपनी पिण्डी स्थापित करवायी.

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कैलापीर ने गोरखाओं को परास्त कर राजा को दिलाई थी जीत

कैलापीर योद्धाओं का आराध्य देव था, जिस कारण श्रीनगर के राजा मानशाह ने गोरखाओं के विरुद्ध युद्ध में कैलापीर को आमन्त्रित किया, देवता द्वारा बोगस्याली विद्या से गोरखाओं को परास्त कर राजा मानशाह को जीत दिलायी. विजय की खुशी में राजा ने कैलापीर को तीन कठुड (थाती कठुड, गाजणा कठुड, नाल्ड कठुड) जो नब्बे जूला कठुड कहा जाता है तथा कुश कल्याण बुग्याल से आय की जागीर भेंट की  18वीं शताब्दी में गढ़वाल मण्डल में गोरखाओं द्वारा पुन: अत्याचार बढ‍़ने लगे तब राजा सुदर्शन शाह की माता रानी के स्वप्न में आकर कैलापीर ने गोरखाओं को परास्त करने के दिशा निर्देश दिए. कैलापीर के बताये मार्गदर्शन के फलस्वरूप रानी ने ब्रिटिश हुकुमतों से मदद मांगी व गोरखाओं को परास्त कर वापस नेपाल खदेड दिया. तब से देवता की महिमा तीनों कठुडों मे फैल गयी व बलिराज मेले में विजय दौड़ का प्रचलन हुआ होगा

बलिप्रथा पर है रोक

कुश कल्याण बुग्याल से भेड़ बकरी चुगान वालों की ओर से प्रतिवर्ष देवता के मेले के लिए निशाण बाखरे (बकरी) भेजे जाते थे, बताया जाता है कि जब कैलापीर का बदराज बग्वाल होती थी तो नेजा मन्दिर से बाहर निकालने के समय बकरी की बलि दी जाती थी, जिसके लिए निशाण बाखरू (बकरी) एक साल मेड,मरवाडी व निवालगॉव की ओर से तथा एक वर्ष कोटी अगुंडा की ओर से आती थी,
वर्तमान में बलिप्रथा पर रोक लगा दी गयी उसके बदले बकरी के खर्च को देवता की रसीद के रूप में कटवाया जाता है.

गुरू कैलापीर बलिराज-बग्वाल (मंगसीर की बग्वाल)

नब्बे जूला अर्थात तीन कठुड (थाती कठुड, गाजणा कठुड, व नाल्ड कठुड) में गुरू कैलापीर की बग्वाल व मेला प्रतिवर्ष कार्तिक माह की दीपावली के ठीक एक माह बाद चतुर्दशी व अमावस्या (मार्गशीर्ष माह) को मनाया जाता है, चतुर्दशी को छोटी बग्वाल व अमावस्या को बडी बग्वाल मनायी जाती है, बग्वाली की रात ग्रामसभा की ओर से नगर (स्थान) पर होंडका रांसू (आग जलाकर नृत्य) किया जाता है उसके बाद 11-12 बजे रात पुंडारा के सेरा में जाकर बग्वैठा (भैला) घुमाकर व पटाखे जलाकर जश्न मनाया जाता है जिसमें पूरा गांव (पुरूष महिलाएं बच्चे बूढे लड़के लड़किया) पूरा प्रतिभाग करते हैं.

अमावस्या की रात 12 बजे देवता को दिवारद्यू (यमदीप) दिया जाता है, जिसके अगले दिन पूरे क्षेत्र से पुरानी प्रथा के अनुसार ठक्रुवाल गाजे बाजे के साथ देवता को मन्दिर से बाहर निकालने के लिए पहुंचते हैं. देवता बलिराज( मेले) के लिए 2 बजे दिन में नेजा रूप मे मां राजराजेश्वरी के मन्दिर से बाहर निकल कर पुण्डारा के सेरा में विजय दौड ( आस्था की दौड) लगाता है, देवता के स्वागत व उल्लास मे पूरा जनसमूह पट्टासुडी ( सूटी) बजाकर देवता को अपनी आस्था व खुशी को प्रदर्शित करते है जिससे देवता भी भैंकर दिवांस (खुशी की लहर/ कला) में रम जाता है.

आस्था की दौड़ लगाने आते दूर दूर से आते हैं भक्त

पु्डारा का सेरा में दूर-दूर से लोग देवता के साथ आस्था की दौड़ लगाने आते हैं व जो दौड़ नहीं पाते वह छतों पर बैठ कर यह भव्य दर्शन के साक्षी बनते हैं, प्रत्येक दौड़ के चक्कर में अलग-अलग गांव के ठक्रुवाल देवता को पकड़ कर अपना-अपना चक्कर पूरा करते हैं. 6 दौड़ पूरी करने के बाद 7वीं दौड़ में देवता पर पराल को फेंक कर बड़ा हर्ष मनाया जाता है, इसी बीच कैलापीर ध्याणियों की पूजा पिठाईं को स्वीकार कर अपना आशीर्वाद समस्त जनता को देकर रक्षिया गगांव के नौ-जवानों की आड (बाहु बल से बनी दीवार) को तोड़कर योद्धा होने का परिचय देता है और सांय 4 बजे अपने मन्दिर में प्रस्थान कर देता है.

रक्शिया गांव में आज भी शक्तिशाली लोग

नौ-जवानों की आड-थाती बूढाकेदार के रक्शिया गांव को भडों का गांव कहा जाता है जहां के युवा बाहुबल में आज भी शक्तिशाली हैं. कैलापीर अपने योद्धा होने का परिचय इस मेले मे नौजवानों की लगायी बाहुबल की आड को तोडकर विजय पाने से देता आ रहा है, इस गुथ्मगुथ्था में रक्षिया के लोग देवता को सेरा से जाने के लिए पूरी जी जान से रोकते है लेकिन देवता व युवाओं के इस संघर्ष में कैलापीर विजय होकर यह प्रथा को बडे शौक से पूरा करता है.

जिस दिन देवता बाहर आता है इस दिन से गांव में 3 दिवसीय मेला प्रारंभ हो जाता है, यह मेला प्राचीन समय के मेलों की ही भांति था जो दूर जराज के लोगों के लिए क्रय-विक्रय का एक महत्वपूर्ण जरिया था जब बाजार व्यवस्था का उदय नही हुआ था, लेकिन आज भी उसी प्रथा के चलते मेले ने भी वर्तमान रूप ले लिया है. मेले के कुछ दिनों पहले से गांव में हिंग्लो (हाट व्यापारी) आने लग जाते हैं, चूडी-बिन्दी मसाले चर्खी-झूला कपडे-बर्तन हिंग-लौंग खेल-खिलौने की दुकानों के साथ-साथ सबकी जुबानों में ताती-ताती जलेबी पकोडी की जो गूंज होती है वह पल हजार रुपयों को खर्च कर शहरों की भीड में कभी नही मिल सकती.

मंगसीर मैना की बग्वाली का उत्साह

मंगसीर माह की बग्वाली का उत्साह पूरे क्षेत्र में आनन्दित व हर्षोलास भरा रहता है, बग्वाली के एक माह पूर्व से ही लोग अपने घर गॉव की सजावट में लग जाते है रंगाई-पोताई, साफ-सफाई, घरेलु सामानों की खरीददारी व पूरे परिवार के लिए कपडे बनाने का प्रचलन आज भी मनमोहक होता है, गॉव में यदि कोई परिवार गरीबी हालत में भी होता है पर वो भी इस उत्साह से अछूता नही रहता होगा वो भी पूरे साल कपडे न ले पर इस समय नये कपडे सामान सजावट जरूर करता है जो कि इस देवता की ही कृपा से संभव हो पाता है.

रांसों तांदी झुमेलों नृत्य का रहता है उत्साह

प्रत्येक गांव वासी अपने दूर दराज के सगे सम्बन्धियों को इस बग्वाल मेले के लिए अपने घर में आमंत्रित करते हैं पूरे गॉव में प्रत्येक घरों में महमान नवाजी के साथ लाजवाब गढवाली व्यंजनों व रांसों तांदी झुमेलों नृत्य आदि उत्साह देखने को मिलता है. सबसे ज्यादा उत्साह बच्चों में इस मेले के प्रति रहता है जो पूरे साल भर इसी मेले के इंतजार मे रहते है मेहमानों के आवाजाही छुट्टिया शॉपिंग खिलौने इत्यादियों से बच्चों के लिए यह माह स्वर्ग के आनन्दों सा प्रतीत होता है.

गुरू कैलापीर मेले को मुख्यमंत्री श्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने दिया राज्य मेला का दर्जा

फाइल फोटो

वर्तमान समय में मेलों के रूप विकसित हो चुके हैं, जिसके आधार पर भी बूढाकेदार मन्दिर समिति द्वारा इस मेले के लिए हर साल नयी नयी तैयारियां की जाती है जिसमें सांस्कृतिक कार्यक्रम, विकास मेला, स्थानीय बाजार विभिन्न विभागों के स्टाल व नेताओं को आमंत्रण आदि प्रमुख होते है, वर्ष 2018 में वर्तमान मुख्यमंत्री श्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत को मेले मे आने का आमंत्रण दिया गया था, जिन्होने आकर बूढाकेदार के गुरूकैलापीर बलिराज-बग्वाल मेले को राज्य मेला घोषित किया था जो कागजी रूप में भी राज्य मेला घोषित हो चुका है।

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