-प्रबोध उनियाल
(लेखक पत्रकार व स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
दिल्ली. फागुन पूर्णिमा को मनाए जाने वाला होली का पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार वर्ष का अंतिम तथा जन सामान्य द्वारा मनाये जाने वाला सबसे बड़ा रंगों का त्योहार है. यह पर्व उल्लास का पर्व भी है, जिसमें सभी वर्ण एवं जाति के लोग बिना वर्ग भेद के सम्मिलित होते हैं. आदि -स्रोत वेदों और पुराण में उल्लेख होने के कारण होली का पर्व वैदिक कालीन पर्व भी कहा जा सकता है. प्राचीन मान्यता है कि लोग इस पर्व में खेतों में उगी आषाढ़ी फसल गेहूं ,जौ व चना आदि की आहुति देकर तदनंतर यज्ञशेष प्रसाद ग्रहण करते थे. जैसे-जैसे समय बीतता गया होली के इस पर्व के साथ अन्य किंवदंतियां और ऐतिहासिक स्मृतियां भी जुड़ती चली गयीं.
होलिका दहन शुभ मुहूर्त 2020
होलिका दहन- सोमवार, 09 मार्च 2020
होलिक दहन शुभ मुहूर्त- शाम 06 बजकर 22 मिनट से 08 बजकर 49 मिनट तक
होलिक दहन अवधि- 02 घंटे
भद्रा पुंछा – सुबह 09 बजकर 50 मिनट से 10 बजकर 51 मिनट तक
भद्रा मुखा : सुबह 10 बजकर 51 मिनट से 12 बजकर 32 मिनट तक
पूर्णिमा तिथि प्रारंभ- 09 मार्च 2020 को 03. 03 am
पूर्णिमा तिथि समाप्त- 09 मार्च 2020 को 11 . 17 pm
होली- 10 मार्च 2020
प्रह्लाद की विजय उत्सव का दिन
नारद पुराण में यह पवित्र दिन भगवद भक्त प्रह्लाद की विजय उत्सव का दिन है. भले ही वरदान से गर्वित हिरण्यकश्यप की बहन होलिका अपने कुत्सित अभिप्राय के साथ प्रह्लाद को अपनी गोदी में लेकर अग्नि चिता में बैठ गई हो लेकिन प्रह्लाद सुरक्षित बच निकले. सच ही है कि अन्याय व क्षुद्र पाप अपने ही ताप से नष्ट हो जाते हैं. इस वजह से भी इस पर्व को सत्य एवं न्याय की विजय का स्मृति पर्व भी कह सकते हैं. भविष्य पुराण में भी उल्लेख आता है कि महाराजा रघु ने राक्षसी के उपद्रव से भयभीत होकर महर्षि वशिष्ठ के आदेशानुसार इस दिन अग्नि प्रज्वलन कर अपनी प्रजा को राक्षसी बाधाओं से मुक्त कराया था.
होली एक वैदिककालीन पर्व
इन संदर्भों से कहा जा सकता है कि होली एक वैदिककालीन पर्व है और माना जा सकता है कि होली उस समय भी किसी ना किसी रूप में प्रचलित थी. यही नहीं भारत से बाहर सुदूर विदेशों में भी यह पर्व अपनी मूल भावना को सुरक्षित रखते हुए बड़े ही सद्भाव से मनाया जाता है.
विज्ञान आश्रित पर्व भी है होली
वैज्ञानिक विवेचन की दृष्टि से देखें तो होली का यह पर्व भी विज्ञान आश्रित पर्व है. कह सकते हैं कि होलिका दहन से इस जाड़े और गर्मी की ऋतु संधि में कई संक्रामक रोगों के रोगाणुओं व कीटाणु स्वयं ही इस दहन ज्वाला में नष्ट हो जाते होंगे. यूँ भी ऋतुराज बसंत के अप्रतिम प्रभाव के अनुग्रह के बाद होली महोत्सव का आयोजन नव स्फूर्ति और नव चेतना का संचार कर देता है. मानव ही नहीं संपूर्ण जीव- बनस्पति जगत भी अपने अभिनव विकास की एक नई परिभाषाएं लिखने लगता है. इस पर्व का यदि सीधा, सच्चा संदेश ग्रहण करें तो निश्चय ही होली के अवसर पर नाच, गाना व मनोविनोद हमें हमारे चित् को प्रसन्नचित्त रखते हैं. जो हमको मानसिक अस्वस्थता से बचाता है.
पलाश और ढाक के फूलों -टेसुओं का रंग जगाता है शरीर में चेतना
होली का पर्व रंगों का पर्व है. इन्हीं रंगों का हमारे भौतिक जीवन में गहरा प्रभाव रहता है. पाश्चात्य चिकित्सा शास्त्रियों का मानना है कि विविध प्रकार के रंगों का हमारे शरीर और चेतना पर सीधे-सीधे असर होता है. उसी कमी को पूरा करने लिए प्राचीन चिकित्सक रंग से युक्त औषधि से ही से समुचित उपचार किया करता था.
वास्तविक दृष्टि से देखा जाए तो होली के पर्व में पलाश और ढाक के फूलों -टेसुओं का रंग के प्रयोग का विधान ही शास्त्रकारों ने कहा है. विदित है कि ढाक का प्रयोग नाना प्रकार की औषधियों के निर्माण में भी किया जाता है . कहा जाता है कि ढाक के फूलों से तैयार रंग शरीर को कई संक्रामक बीमारियों से बचाता है.
कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि होली का यह पर्व एक विश्वव्यापी पर्व है, जो विभिन्न रंगों के बहाने आपसी सद्भाव के रंगों को और गहरा कर सकता है. आज भले ही इस वैदिककालीन पर्व के साथ बहुत से दोष और अपवाद जुड़ गए हों लेकिन हम सब इसके उदात्त आदर्शों को पुनः स्थापित कर इस पर्व को विशुद्ध कर सकते हैं.