–गोविंद आर्य
राज्य निर्माण के 25 साल बाद राज्य सरकार जहां यह दावा कर थक नहीं रही है कि 21वीं सदी का तीसरा दशक उत्तराखंड का होगा। वहीं 25 साल में राज्य निर्माण के बाद यह पहली बार है कि उत्तराखंड नई राजनीतिक अंगड़ाई लेने की ओर अग्रसर है। राज्य निर्माण के बाद से ही राष्ट्रीय दलों की बारी-बारी से सत्ता में रही भागीदारी से उत्तराखंड का मूल निवासी अपने को अलग-थलग महसूस करता रहा है। बीते ढाई दशक में उसे उम्मीद थी कि एक न एक दिन जिस उदेश्य के लिए उत्तराखण्ड राज्य का गठन हुआ है, राज्य की सरकार उसमें उसके हकों की सुरक्षा सुनिश्चित करेगी। परंतु राष्ट्रीय दलों की नीतियों में अंतिम छोर पर बैठे व्यक्ति को सरकारी योजनाएं सिर्फ नेताओं के भाषणों तक सीमित हो गई और इन 25 वर्षों में अंतिम छोर पर बैठा नेता और ठेकेदार मालोंमाल हो गए। राज्य सरकार जिस 21वीं सदी के तीसरा दशक उत्तराखंड के होने के सपने दिखा रही है, उसमें निश्चित तौर पर हाल के दिनों में सोशल मीडिया में जो सत्ता धारी पार्टी के नेताओं की साझीदारी के प्रोजेक्ट सामने आ रहे हैं, वे धरातल पर साकार होने लगेंगे और तीसरा दशक उनका होना तय है। जबकि दूसरी ओर बच्चों की बेहतर शिक्षा और रोजगार के लिए खाली होते गांव, सरकारी अस्पतालों में समुचित इलाज के लिए तरसते मरीज और रसियों के सहारे नदियां पार करते उत्तराखंड के आम नागरिकों को तीसरे दशक में भी असुविधाओं से छुटकारा मिलने की सम्भावना दूर दूर तक नहीं दिखाई देती है।
यही कारण है कि उत्तराखंड के आम लोगों का धैर्य अब खत्म होने लगा है और राष्ट्रीय दलों की सरकार से मुक्ति पाने के लिए नए विकल्प की तलाश की जा रही है। हाल के राजनीतिक घटनाक्रम से इसे और बल मिला है। उत्तराखंड की विधानसभा से समान नागरिक संहिता, सख्त भू कानून जैसे मसलों पर जब सरकार अपनी पीठ थपथपाने की तैयारी कर रही थी। ठीक इसी दौरान राज्य के तत्कालीन वित्त व संसदीय कार्य मंत्री प्रेम चंद अग्रवाल के असंसदीय शब्दों ने उत्तराखंड वासियों को आक्रोशित कर दिया है। हालांकि अब प्रेमचंद अग्रवाल का इस्तीफा हो चुका है, लेकिन इस बहाने उत्तराखंड के मूल निवासियों के हितों के साथ पिछले 25 वर्ष से किये जा रहे कुठाराघात की पीड़ा अब फोड़ा बनकर ओर उभरने लगी है। परिणामस्वरूप उत्तराखंड की राजनीति में नई करवट की उम्मीद जताई जा रही है। हालांकि यह अभी बहुत दूर की बात है कि पिछले कुछ साल से बेरोजगारों की लड़ाई लड़ रहे बॉबी पवार, भू कानून को लेकर मुखर मोहित डिमरी, लुसुन टोडरिया और केदारनाथ उपचुनाव 2024 में निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर राष्ट्रीय दलों को चुनौती देने वाले त्रिभुवन चौहान की हुंकार को उत्तराखण्ड का जनमानस कितना समर्थन देगा।
राजनीति में पहली बार बन रही उम्मीद
लोकसभा चुनाव 2024 में टिहरी संसदीय क्षेत्र से युवा नेता बॉबी पवार ने दोनों भाजपा और कांग्रेस के खिलाफ ताल ठोंक कर राष्ट्रीय दलों के विकल्प का संकल्प जता कर कड़ी चुनौती दी थी। इस चुनाव में पहली बार हुआ कि टिहरी संसदीय क्षेत्र में निर्दलीय बॉबी पवार को 1 लाख 68 हजार से भी ज्यादा लोगों ने वोट देकर कमल और हाथ को छोड़कर हीरे को अपनाने का संकल्प किया। यह चुनाव बॉबी भले जीत नहीं पाए लेकिन बॉबी को मिले वोट उत्तराखण्ड में तीसरे विकल्प की सम्भावना का पुरजोर समर्थन की ओर इशारा था। भाजपा कांग्रेस के विकल्प के इस संकल्प ने केदारनाथ के उप चुनाव ने और मजबूत किया और यहां पत्रकार त्रिभुवन भले विजय हासिल नहीं कर पाए लेकिन राष्ट्रीय दलों के अनुमान धराशायी कर दिए। टिहरी और केदारनाथ की धरती से मिले जनता के रुझान को नगर निगम चुनाव में दोनों राष्ट्रीय दलों ने ऋषिकेश में गैर पहाड़ी उम्मीदवार उतार कर और पुख्ता कर दिया और यहां मोहित डिमरी, बॉबी, लुसुन, त्रिभुवन आदि ने जिस तरीके से दिनेश चंद्र मास्टर के चुनाव को रोचक बनाया उससे उत्तराखंड में राष्ट्रीय पार्टियों के वोट बैंक में जरूर सेंध लगी है और यही नया वोट बैंक अब उत्तराखंड में आकार ले सकता है। निश्चित तौर पर उत्तराखंड के लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी जी के समर्थन से यह भावना और मजबूत हुई। हालांकि मैं एक निजी तौर पर यह भी मानता हूं कि अगर ऋषिकेश में सीट आरक्षित नहीं होती तो यह एकमुश्त धुर्वीकरण कतई सम्भव भी नहीं था।
सामूहिक लड़ाई का आह्वान और चुनौतियां
उत्तराखंड में इन दिनों राज्यवासियों के हितों के मुद्दे पर अलग अलग गुटों में संघर्ष कर रहे लोगों ने बॉबी पवार, मोहित डिमरी, लुसुन टोडरिया और त्रिभुवन आदि के नेतृत्व में स्वाभिमान मोर्चा गठित कर सामूहिक संघर्ष का ऐलान किया है। हालांकि मोर्चे के गठन से अब लोगों के आक्रोश और भावनात्मक समर्थन को राजनीतिक लड़ाई यानी वोट की राजनीति में बदलने की असली चुनौती इन युवाओं के समक्ष है। स्वाभिमान मोर्चे ने 11 पहाड़ी जिलों में चिंतन बैठक से अपने इस प्रत्यक्ष राजनीतिक अभियान को गति दे दी है। लेकिन अभी तक इस मोर्चे में राज्य का और कोई बड़ा नाम नहीं जुड़ पाया है। यह सभी जानते हैं कि उत्तराखंड में 5 साल लोग सत्ता और विपक्ष को खूब गरियाते हैं, लेकिन चुनाव के दिन वोट की उंगली एवीएम के तीसरे बटन से नीचे नहीं उतरती। राजनीतिक करवट के लिये यब सबसे बड़ी चुनौती है। देखना दिलचस्प होगा कि जिन युवाओं ने उत्तराखंड की राजनीतिक तसवीर बदलने का संकल्प लिया है उत्तराखंड की जनता इस विकल्प को राजनीतिक तौर पर कितना स्वीकार करती है।
क्रमशः